सम ताल के आरंभ को कहते हैं। सम सदैव किसी भी ताल की पहली मात्रा पर आती है और इसके आने पर गायन-वादन में स्वाभाविक जोर व आकर्षण पैदा हो जाता है। सम यदि अपने स्थान पर नहीं आई तो सारा मजा फीका हो जाता है और साधारण श्रोताओं की समझ में आ जाता है कि कहीं कुछ बिगड़ गया है।
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